Haji Malang Dargah:
महाराष्ट्र में मलंगगढ़ का विवाद नया नहीं है. दोनों समुदाय इस पर दावा करते आए हैं. चंद महीने पहले मुख्यमंत्री शिंदे ने कहा था कि वह सदियों पुरानी हाजी मलंग दरगाह की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं. इसके बाद ये विषय देशभर की सुर्खियों में आ गया था.
महाराष्ट्र में एक पहाड़ी किला मलंगगढ़ है. जहां एक दरगाह है. इस जगह को 12वीं शताब्दी के सूफी संत हाजी अब्द-उल-रहमान से जोड़कर देखा जाता है. कुछ लोग इसे हाजी मलंग बाबा का स्थान बताते हैं. दूसरी ओर हिंदू धर्म के मानने वालों का मानना है कि यह जगह एक मंदिर है. दावा ये है कि यहां नाथ संप्रदाय के दो हिंदू संतों की समाधियां हैं. जिसमें एक समाधि मलंग बाबा मछेंद्रनाथ और दूसरी समाधि बाबा गोरखनाथ की है. हर महीने की पूर्णिमा तिथि को यहां भव्य आरती होती है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे अक्सर पूर्णिमा की तिथि को बाबा वहां होने वाली आरती में शामिल होते हैं. शिंदे ने फरवरी 2023 में दरगाह का दौरा किया था. उन्होंने आरती के बाद वहां भगवा चादर चढ़ाई थी. जिसके बाद से ये मामला लगातार सुर्खियों में है.
हाजी मलंग की दरगाह या मलंग बाबा की समाधि?
मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने मलंगगढ़ मुक्ति आंदोलन की बात कह चुके हैं. जिससे महाराष्ट्र में ये संकेत गया कि इस धार्मिक स्थल को हाजी मलंग की दरगाह वाली पहचान को मिटाकर, मलंग बाबा की समाधि वाली पहचान दिलाने की कोशिश की जाएगी. हिंदू इस दरगाह को मंदिर बताते हैं, और यही विवाद का विषय है. दरगाह के हिंदू ट्रस्टी, कोर्ट के एक फैसले के आधार पर दावा करते हैं कि ये जगह हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों की सामूहिक धरोहर है.
शिंदे के गुरू ने चलाया था आंदोलन
समाधि या दरगाह ये विवाद काफी पुराना है. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के राजनीतिक गुरु आनंद दीघे ने 1980 में इस मामले को लेकर आंदोलन चलाया था. उनका दावा था कि इस इमारत की जगह पर नाथ संप्रदाय के संतों से संबंधित एक पुराना हिंदू मंदिर है जिसे ‘मछिंद्रनाथ मंदिर’ कहा जाता है.
शिवसेना हो या अन्य दक्षिणपंथी समूह इस स्थल को ‘श्री मलंगगढ़’ के नाम से बुलाते हैं. 1996 में वो 20000 शिवसैनिक लेकर मंदिर जाने पर अड़ गए थे. उस वर्ष तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी और उद्धव ठाकरे भी पूजा में शामिल हुए थे. तभी से मलंगगढ़ का मछेंद्रनाथ मंदिर या कहें कि हाजी मलंग बाबा दरगाह, शिवसेना के लिए एक बड़ा मुद्दा है.
पिछले बड़े विवाद की बात करें तो 28 मार्च 2021 को दोनों समुदायों के बीच धार्मिक कार्यक्रम को लेकर विवाद हुआ था. गोरखनाथ पंथ के संत मछिंदर नाथ की समाधि पर आरती के दौरान दूसरे समुदाय के लोगों ने धार्मिक नारे लगाए. इसके बाद दोनों पक्षों के बीच कहासुनी शुरू हो गई, मामले ने तूल पकड़ लिया था तब पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज किया है.
पहाड़ी की तलहटी में बने इस धार्मिक स्थल तक पहुंचने के लिए करीब 4 किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई करनी पड़ती है. हर साल इसी रास्ते हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोग यहां पूजा और इबादत करने आते हैं. इस रास्ते की एक खासियत ये भी है कि दरगाह बताए जाने वाले इस धार्मिक स्थल के रास्ते में कई मंदिर हैं. जो हिंदू इस दरगार को मछेंद्रनाथ मंदिर मानकर जाते हैं, वो रास्ते में पड़ने वाले सभी मंदिरों में माथा टेकते हैं. दरगाह से पहले एक ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में स्थानीय लोगों का दावा है कि ये मंदिर भी सैकड़ों वर्ष पुराना है.
यहां दोनों धर्मों के लोगों को देखा जाता है. यहां दो मज़ारें या समाधि हैं. मुस्लिम पक्ष का दावा है कि इसमें बड़ी वाली मज़ार यमन से आए हाजी अब्द उल रहमान की है, जो हाजी मलंग के नाम से मशहूर थे. दूसरी समाधि नल राजा की बेटी की है. इन्हें फातिमा मां कहा जाता है. ये दोनों दावे 1882 में छपे बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गजट से मिलते हैं.
हालांकि हिंदू पक्ष इसको लेकर अलग दावे करता है. उनका कहना है कि बीते कुछ सालों में इस जगह को पूरी तरह से दरगाह में बदल दिया गया है. उनका कहना है कि कभी किसी वक्त में यहां पर दोनों धर्मों से जुड़े पवित्र चिन्ह हुआ करते थे, लेकिन धीरे धीरे हिंदू प्रतीकों साजिश के तहत हटा दिए गए.
हिंदू पक्ष अपने दावे को ये कहकर मजबूत बताता है, कि दुनिया की किसी भी मजार पर चंदन का लेप या भस्म नहीं लगाई जाती, ना ही मजार की पालकी यात्रा निकली जाती है. लेकिन बाबा मछेंद्रनाथ के मंदिर को दरगाह बताने वाले यही पूजा पद्धति अपनाते आ रहे हैं.
दरगाह का इतिहास और दावा
दरगाह का इतिहास पौराणिक कथाओं में डूबा हुआ है. कहा जाता है कि स्थानीय राजा नल के शासनकाल के दौरान सूफी संत यमन से अपने कई अनुयायियों के साथ यहां आए थे. यहां आसपास रहने वाले हों या अपनी रोजी रोटी कमाने वाले सबके पास कोई न कोई कहानी है. वहीं किंवदंतियों में दावा किया गया है कि नल राजा ने अपनी बेटी की शादी सूफी संत से की थी. वैसे दरगाह पर संघर्ष के पहले संकेत 18वीं शताब्दी की शुरुआत से मिलते हैं. तब स्थानीय मुसलमानों ने इसका प्रबंधन एक ब्राह्मण द्वारा किए जाने पर आपत्ति जताई थी. यह संघर्ष मंदिर की धार्मिक प्रकृति के बारे में नहीं बल्कि इसके नियंत्रण के बारे में था.
एक और किंवदतिं के मुताबिक 1817 में निर्णय लिया कि संत की इच्छा लॉट डालकर पाई जानी चाहिए. लॉट डाले गए और तीन बार लॉटरी काशीनाथ पंत के प्रतिनिधि पर गिरी, जिसके बाद उन्हें संरक्षक घोषित किया गया. तब से केतकर परिवार हाजी मलंग दरगाह ट्रस्ट के वंशानुगत ट्रस्टी हैं. उन्होंने मंदिर के रखरखाव में भूमिका निभाई है. कहा जाता है कि ट्रस्ट में हिंदू और मुस्लिम दोनों सदस्य थे, जो सौहार्दपूर्ण ढंग से काम करते थे. समय बीता तो बात बातचीत से आगे निकलकर झगड़ा-झंझट तक पहुंच गई.
कोर्ट तक गया मामला
दरगाह या समाधि मंदिर ये विवाद भले ही राजनीतिक रूप से उठा हो, लेकिन इस सवाल का जवाब, बरसों से तलाशने की कोशिश हो रही है. इसे लेकर कोर्ट में अलग-अलग केस चल रहे हैं. इस विवाद से किस पक्ष को कितना फायदा या नुकसान होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. लेकिन ये जरूर स्पष्ट दिखता है कि राजनीतिक दल इस सवाल का जवाब अपने पक्ष में ही देखना चाहते हैं.